भारतीय इतिहास में आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक वैयक्तिक, शैक्षिक, सामाजिक क्षेत्रों में बदलाव होता रहा है। मानव सभ्यता के उद्भव एवं विकास से लेकर वर्तमान समय तक शिक्षा अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है। मानव जीवन-शैली के विकास के साथ साथ शिक्षा, संस्कार, आचरण-व्यवहार, क्रियाकलापों का विकास एवं पीढी़ दर पीढ़ी स्थानान्तरण शिक्षा के माध्यम से हुआ है। मानवीय जीवन की समस्याएं वास्तव में शिक्षा की समस्याएं है। प्राचीन कालीन भारत में शिक्षा का स्वरूप अनौपचारिक अधिक तथा औपचारिक कम था। बौद्ध काल में शिक्षा व्यवस्था को लोकतांत्रिक बनाने का कार्य प्रारम्भ किया गया। किंतु मध्यकालीन भारत में शिक्षा सुखपूर्वक जीवन-यापन का आधार मात्र बनकर रह गयी थी। भारत में अंग्रेजो का आगमन व्यापार करने के उद्देश्य से हुआ किंतु धीरे धीरे उन्होंने साम्राज्य की स्थापना कर भारत अधिकांश क्षेत्रों आधिपत्य कर लिया। भारतीय सामाजिक, राजनीति, सांस्कृतिक, धार्मिक आदि प्रत्येक क्षेत्र को अंग्रेजी शासन व्यवस्था ने प्रभावित किया। सर्वप्रथम 1773 ई. में रेगुलेटिंग एक्ट का निर्माण किया जिसमें उनके भारतीय शासन को वैधानिक स्वरूप प्रदान किया। सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, व्यावसायिक, सांस्कृतिक क्षेत्रो के साथ-साथ समयोपरान्त शिक्षा के क्षेत्र में भी अंग्रेजो का अधिपत्य बढ़ता चला गया। ऐसा होने के कारण भारत के परम्परागत ज्ञान, साहित्य, विद्या, विचार आदि पर दुष्प्रभाव पड़ने लगा जिस कारण भारतीय विद्वजन एवं राजनीतिज्ञ द्वारा शिक्षा के पश्चात्य स्वरुप पर विरोध का स्वर उठने लगा। इस प्रकार दो विचारधाराओं प्राच्य शिक्षा एवं पाश्चात्य शिक्षा समर्थको का जन्म हुआ। भारतीय शिक्षा के इतिहास में ब्रिटिश शासन के दौरान प्राच्य-पाश्चात्य शिक्षा विवाद ने शिक्षा व्यवस्था को नवीन रूप-रंग और दिशा प्रदान किया था। जिसका प्रभाव वर्तमान समय में इक्कीसवीं सदी की शिक्षा व्यवस्था पर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। शिक्षा के निजीकरण, वैश्वीकरण, पश्चिमीकरण और तकनीकीकरण में ब्रिटिश शासन व्यवस्था एवं उनकी भारतीय परिप्रेक्ष्य में शैक्षिक रणनीति आजादी के आठ दशक बाद भी दिखाई देती है। प्रस्तुत विषयवस्तु में प्राच्यवादी विचारधारा एवं पाश्चात्यवादी विचारधारा के मूलभूत पहलूओं का विश्लेषणात्मक अध्ययन किया गया है।
मुन्ना गुप्ता और प्रो. (डॉ.) सविता सिन्हा
410-417
10.2025-34817856