AD EDUXIAN JOURNAL

(A QUARTERLY MULTIDISCIPLINARY BLIND PEER REVIEWED & REFEREED ONLINE INTERNATIONAL JOURNAL)

YEAR: 2024

E- ISSN:3048-7951

विविधता और पहचान का संकट: एक समाजशास्त्रीय अध्ययन

Abstract

भारतीय समाज एक बहू आयामी समाज है, जो अनेक प्रकार की विविधताओ से परिपूर्ण है। इन विविधताओं में भारतीय संस्कृति के अनेकानेक रंगों के दर्शन होते हैं। इन्ही सब विविध रंगों के समन्वय को ही भारतीय समाज के नाम से जाना जाता हैं। समाजशास्त्रीय परिपेक्ष्य में भी इन्ही सब विविधताओं के आपसी संबंधों को समाज की संज्ञा दी गई हैं। प्रसिद्ध समाजशास्त्री मेकाईवर एवं पेज के अनुसार “समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल या तानाबाना हैं।” यहाँ अनेक संस्कृतियों का सह-अस्तित्व पाया जाता हैं। यह विविधता कृत्रिम विविधता अर्थात मानव निर्मित मात्र नहीं बल्कि प्रकृति प्रदत्त भी हैं। भारतीय समाज एक विविधता पूर्ण समाज हैं। किन्तु इसका अभिप्राय यह कतई नहीं हैं कि भारतीय समाज एक छिन्न भिन्न समाज हैं जो विभिन्न आधारों पर टूटा हुआ या बिखरा हुआ समाज हैं। बल्कि यह विविधता तो भारतीय समाज और संस्कृति कि मूल पहचान हैं। जो भारतीय समाज कि विविधता में एकता का प्रतीक हैं। जो कश्मीर से कन्याकुमारी एवं अटक से कटक तक भारत एक हैं कि युक्ति को चरितार्थ करता हैं। यही कारण हैं कि इस सम्पूर्ण भारत भूमि को एक सर्वमान्य नाम भारतीय गणराज्य दिया गया। ऐसे में इन सभी उपसांस्कृतिक समूहों के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने अस्तित्व / पहचान को बनाये रखना हैं। प्रस्तुत पेपर का मुख्य उद्देश्य भारतीय समाज में विध्यमान अनेक उपसंस्कृतियों के सामने अपनी पहचान या अस्तित्व को बनाने कि समस्या एवं उसे बनाये रखने कि चुनौती का अध्ययन करना हैं। साथ ही संस्थागत उपायों को सुझाना है।

Keynote: भारतीय समाज, पहचान का संकट, समाज और संस्कृति, सामाजिक सम्बन्ध|

Acceptance: 29/01/2025

Published: 04/03/2025

Writer Name

डॉ. प्रकाश चन्द्र दिलारे

Pages

393-409

DOI Numbers

03.2025-15186368